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शिव: शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्त: प्रभवितुं, न चेदेवं देवो न खलु कुशल: स्पन्दितुमपि |
अतस्त्वामाराध्यां हरिहरविरिंचादिभिरपि, प्रणतुं स्तोतुं वा कथमकृतपुण्य: प्रभवति ||


गवत्पाद भगवान शंकराचार्य ने अपनी सौंदर्य लहरी में कहा है-
शिव: शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्त: प्रभवितुं, न चेदेवं देवो न खलु कुशल: स्पन्दितुमपि 
स्त्री पुरुष के परस्पर सम्मानपूर्वक किये जाने वाले सामूहिक प्रयत्न से ही राष्ट्र की उन्नति यानी यथार्थ आनंद की प्राप्ति होगी, वस्तुत: यही शिवरात्रि का संदेश है। इसकी तिथि चतुर्दशी मन-बुद्धि- चित्त-अहंकार इन चार भीतरी इंद्रियों के साथ पांच ज्ञानेंद्रियों एवं पांच कर्मेद्रियों सहित चतुर्दश इंद्रियों का निरोध अर्थात वश में करती है। सत्व गुण के संधि काल स्वत: उदय होने से साधकों के लिए यह महारात्रि अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। इस समय चित्त शांत हो जाता है और मन प्रपंच से हट कर स्वयं आत्मनिष्ठ होने लगता है। उपास्य देवता के ध्यान में समय व्यतीत करना तथा जप में चित्त को लगाना ही वस्तुत- उपवास है।
स्कंदपुराणीय सनत्कुमार संहिता एवं शिव पुराण के अनुसार ब्रहमा एवं विष्णु के विवाद को मिटाने के निमित्त निष्कल स्तंभ के रूप में शिव का प्रदुर्भाव महाशिवरात्रि के दिन ही हुआ था। अतएव यह शिव लिंग के प्राकट्य दिवस के रूप में भी वर्णित है-
माघ कृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि।
शिवलिंगोतयोद्भूतकोटि सूर्यसमप्रभा।।
शिवरात्रि को शिव- पार्वती विवाह की भी बात कही जाती है। वस्तुत: सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव, एवं अनुग्रह ये पंच कृत्य करने हेतु शिव का शक्ति से मिलन ही विवाह है जिससे वह परमात्म शिव, सर्वकर्ता, सर्वज्ञ, पूर्ण, नित्य, एवं व्यापक कहलाते हैं। वैष्णव तंत्र नारद पांचराग के अनुसार ब्रहमा, विष्णु, दक्ष आदि देवों ने कालिका को प्रकट किया। वर मांगने की बात कहे जाने पर दक्ष कन्या बन शिव को मोहित करने को कहा। देवी सती रूप से प्रकट हुई। दोनों का विवाह कराया गया। उनके रमण से जो तेज त्रिलोक में गिरा वहीं शिव लिंग हुए। सबके आश्रय और अधिष्ठान होने से भगवान ही लिंग कहलाते हैं। उत्पत्तितंत्र में कहा गया है-
शाक्तो वा वैष्णवो वापि सौरो वा गाणपत्य वा।
शिवार्चन विहीनस्य कुत: सिद्धिर्भवेत् प्रिये।।
शिवरात्रि व्रत के महात्म्य प्रसंग में कहा गया है कि लगातार एक वर्ष शिव की पूजा का फल शिवरात्रि के एक दिनात्मक पूजन से ही प्राप्त हो जाता है। मोक्ष के चारों उपायों(शिव की पूजा, रुद्र मंत्रों का जाप, शिव मंदिर में उपवास तथा काशी में मरण) में शिवरात्रि व्रत सर्वश्रेष्ठ है।

इस प्रकार धार्मिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से महाशिवरात्रि का विशेष महत्व है। काशी में तो हर घर में उत्सव का कुछ ऐसा वातावरण बनता है मानों अपने घर में किसी मांगलिक काज आन पड़ा हो। सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय एकता, और अखंडता की दृष्टि से शिवरात्रि में निहित अर्थ निश्चित ही उसकी महत्ता के परिचायक हैं।
शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं । न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ॥ 
अतस्त्वामाराध्यां हरिहरविरंच्यादिभिरपि । प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृतपुण्यः प्रभवति ॥१॥ 

शिव निस्पंदित,निष्क्रिय हैं यदि नहीं शक्ति के साथ । यदि शक्ति सहित हैं तो रच देंगे अतुल, अगाध; जब शिव स्वयं विष्णु-ब्रह्म के साथ तुम्ही को पूजित करते किस प्रकार तब अकृत-पुण्य जन योग्य बनेंगे सहज तुम्हारे आराधन के ॥१॥ 

 तनीयांसं पांसुं तव चरण पंकेरुहभवं । विरिंचिःसन्चिन्वन् विरचयति लोकानविम् ॥ 
वहत्येनं शौरिः कथमपि सहस्रेण शिरसां । हरः संक्षुद्यैनं भजति भसितोद्धूलन विधिम् ॥२॥ 

 सहेजकर तुम्हारे पद-पंकज के किंचित रज कण रच देते हैं अविकल सृष्टि यह सुन्दरतम, विमुग्ध हो ब्रह्म, कैसे-कैसे सहस्र मस्तकों पर सम्हालते सजाते हैं विष्णु शेष-रूप हो औ’ भस्म बनाकर समो लेते हैं हर (शिव) स्व-तन पर । तव-चरणों की धूल है अखिल ब्रह्माण्ड॥२॥ 

 अविद्यानामंतस्तिमिर-मिहिर द्वीपनगरी। जडानां चैतन्य स्तबक मकरंद स्रुतिझरी॥
दरिद्राणां चिंतामणि गुणनिका जन्मजलधौ । निमग्नानां दंष्ट्रा मुररिपु वराहस्य भवति ॥३॥ 

 तुम भानु-द्वीप की नगरी हो मूढ़-हृदय के अंधकार को, चेतना-गुच्छ हो जड़मति को जिनसे झर-झर पराग-उल्लास झरे, हो दीन-पतित को चिंतामणि गर-माल औ’ अगाध सागर मे जकड़े जन को जन्म-मरण के हो मुर-रिपु वराह के मुख-सी !॥३॥

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